Bhagavad Gita: Chapter 17, Verse 14

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् |
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || 14||

देव-परम प्रभु; द्विज-ब्राह्मण; गुरु-आध्यात्मिक आचार्यः प्राज्ञ-बुद्धिमान व्यक्तियों की; पूजनम्-पूजा; शौचम्-पवित्रता; आर्जवम्-पवित्रता; ब्रह्मचर्यम्-ब्रह्मचर्य, अहिंसा-अहिंसा; च-भी; शरीरम्-देह संबंधी; तपः-तपस्या; उच्यते-कहा जाता है।

Translation

BG 17.14: परमपिता परमात्मा, ब्राह्मणों, आध्यात्मिक गुरु, बुद्धिमान तथा श्रेष्ठ सन्तजनों की पूजा यदि पवित्रता, सादगी, ब्रह्मचर्य तथा अहिंसा के साथ की जाती है तब इसे शरीर की तपस्या कहा जाता है।

Commentary

'तप' शब्द का तात्पर्य है अग्नि पर तपाना या पिघलाना। शुद्धिकरण की प्रक्रिया में धातुओं को गर्म किया जाता है तथा पिघलाया जाता है ताकि अशुद्धता ऊपर आ जाए और उसे हटाया जा सके। जब स्वर्ण को अग्नि में रखा जाता है तब इसकी अशुद्धता नष्ट हो जाती है एवं इसकी चमक और बढ़ जाती है। इसी प्रकार वेदों में कहा गया है-“अतप्ततर्नुनतदा भिश्नुते" (ऋग्वेद 9.8.3.1) अर्थात तप से शरीर को शुद्ध किए बिना कोई भी व्यक्ति योग की अंतिम अवस्था तक नहीं पहुँच सकता। निष्ठापूर्वक तप करने से मनुष्य इस लोक से परलोक तक अपने जीवन का उत्थान कर सकते हैं। ऐसा तप बिना किसी दिखावा के शुद्ध भावना के साथ आध्यात्मिक गुरु तथा धर्मशास्त्रों के मार्गदर्शन के अनुसार किया जाना चाहिए। 

श्रीकृष्ण अब ऐसे तप का वर्गीकरण शरीर, वाणी और मन के तप के रूप में करते हैं। इस श्लोक में वह शरीर के तप के संबंध में बताते हैं। जब यह शरीर सात्त्विक जनों एवं पुण्यात्माओं की सेवा के लिए समर्पित होता है तब सामान्यतः सभी प्रकार के इन्द्रिय भोग तथा विशेष रूप से कामदोष का परिहार हो जाता है तब यह शरीर के तप के रूप में प्रकाशित होता है। ऐसा तप शुचिता, सादगी से युक्त होना चाहिए और यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इससे किसी अन्य को कोई दुःख न पहुँचे। यहाँ पर ब्राह्मण उसे नहीं कहा गया है जो जन्म से ब्राह्मण हैं बल्कि वे ऐसे मनुष्य हैं जो सात्त्विक गुणों से सम्पन्न हैं।  इसका वर्णन श्लोक 18.42 में भी किया गया है।

Swami Mukundananda

17. श्रद्धा त्रय विभाग योग

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